कलमा नहीं सुना पाए तो एक दो नहीं पुरे 26 हिन्दू मौत के घाट उतार दिए गए
जम्मू । जम्मू कश्मीर के पहलगाम में घटित हिंसा की इस ताज़ा वारदात ने लोगो के जेहन में 19 जनवरी 1990 की काली रात की याद ताज़ा कर दी हैं। कश्मीर में हिन्दुओं पर हिंसक अत्याचार की पराकाष्ठा इस एक रात में सबसे ज्यादा हुई थी। धर्म को आधार बनाकर पहलगाम में की गई हिंसा की ताज़ा वारदात पर हिन्दू समाज का आक्रोष असहनीय हैं। पुरे विश्व में आतंकियों के विरुद्ध नफरती प्रतिक्रिया हो रही हैं।इन प्रतिक्रियाओं पर भी हिन्दू विरोधी कथित सेक्युलर राजनैतिक दल स्यापा कर रहे हैं। स्थानीय कश्मीरीयों की मासूमियत के किस्से बढ़ चढ़ कर बताए जा रहे हैं। कहा जा रहा हैं की पहलगाम की घटना का फायदा लेकर मुस्लिम विरोधी नेरेटिव सेट किया जा रहा हैं। लेकिन लोग कश्मीर के अतीत को शायद कभी नहीं भूल सकते हैं। हिन्दुओं पर अन्याय और अत्याचार के मामलों की अकेले कश्मीर की फेहरिस्त बहुत लम्बी हैं। कश्मीर में हिन्दुओं पर अत्याचार की कहानी ज्यादा पुरानी नहीं हैं। वर्ष 1987 से लगाकर 1989 तक की दो वर्षों में कश्मीर में धर्म के आधार पर वैमनस्यता की फसल तैयार हुई थी। केंद्र में तब राजीव गांधी की ढुलमूल सरकार थी। यह वह समय था जब घाटी में पाकिस्तान प्रायोजित जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) और अन्य उग्रवादी समूहों ने पैर ज़माने शुरू कर दिए थे।
इन संगठनों ने थोड़े से समय में ही घाटी में हिंसा का खुला खेल शुरू कर दिया था। परिणाम स्वरूप वर्ष 1989 से 1990 तक कश्मीर से हिन्दुओं ने पलायन करना शुरू कर दिया था। पाक प्रायोजित इस प्रॉक्सी वार को राजीव सरकार समझती तब तक कश्मीर में उग्रवाद चरम पर पहुँच गया था। इससे निपटने के लिए सुरक्षा बलों की तैनाती बढ़ाई गई। लेकिन उग्रवाद को नियंत्रित करने के लिए व्यापक रणनीति की कमी थी। कश्मीरी पंडितों की सुरक्षा के लिए राजीव सरकार ने कोई विशेष कदम नहीं उठाए थे। 1989 में जब हिंसा बढ़ी, तब उनकी सरकार कार्यकाल के अंत में थी। 1990 के बाद तो हालात और बिगड़ते चले गए। पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी ISI ने लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद जैसे आतंकी संगठनों को प्रशिक्षण, हथियार और वित्तीय मदद देकर हिन्दुओं का कत्लेआम करवाया। इस दौरान 19 जनवरी 1990 इतिहास की काली रात थी। इस दिन मस्जिदों के लाउडस्पीकरों से घोषणाएँ की गईं कि कश्मीरी पंडित "काफिर" हैं और उन्हें तीन विकल्प दिए गए: कश्मीर छोड़ो, इस्लाम स्वीकार करो, या मरने के लिए तैयार रहो। कुछ ऐलानों में यह भी कहा गया कि पंडित अपनी महिलाओं को पीछे छोड़कर जाएँ। इसके अलावा, 4 जनवरी 1990 को स्थानीय उर्दू अखबार 'आफताब' में हिज्ब-उल-मुजाहिदीन की ओर से एक प्रेस रिलीज़ प्रकाशित हुई थी, जिसमें कश्मीरी पंडितों को तुरंत घाटी छोड़ने का आदेश दिया गया। इस चेतावनी को 'अल-सफा' अखबार ने भी छापा। इन धमकियों के साथ ही जिहादी समूहों ने सशस्त्र मार्च किए और हिन्दुओं के खिलाफ हिंसा तेज होती चली गई। परिणामस्वरूप 1989 के अंत से 1990 के शुरुआती महीनों में बड़े पैमाने पर कश्मीरी पंडितों का घाटी से पलायन हुआ था। अनुमान के मुताबिक, 1 लाख से 1,40,000 कश्मीरी पंडितों ने एक - एक कर घाटी छोड़ दी, जो उस समय घाटी की कुल हिन्दू आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा था। कश्मीरी पंडितों और महिलाओं पर अत्याचार और हिंसा में हत्याएँ, अपहरण, संपत्ति की लूट, और महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा जैसे अनगिनत पंजीकृत या अपंजीकृत वारदाते शामिल थी।
उल्लेखनीय हत्याओं में पंडित टीका लाल टपलू (14 सितंबर 1989) की हत्या शामिल है, जो एक प्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता और वकील थे। उन्हें श्रीनगर में उनके घर पर गोली मार दी गई। रिसर्च थिंक टैंक सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड एंड होलिस्टिक स्टडीज (CIHS) की रिपोर्ट के अनुसार, 1989-2003 के बीच हत्या, बलात्कार, और हिंसा के कई प्रलेखित मामले सामने आए।महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा और बलात्कार की घटनाएँ आम हो गई थीं। श्रीनगर के रैनावाड़ी और मायसूमा जैसे क्षेत्रों में मकान जलाए गए और महिलाओं के साथ बलात्कार की खबरें सामने आईं।कुछ मामलों में, पंडित महिलाओं को अपहरण कर धर्म परिवर्तन के लिए मजबूर किया गया। मस्जिदों से ऐलान किए गए कि पंडित अपनी महिलाओं को छोड़कर जाएँ, जिससे उनके खिलाफ हिंसा का डर बढ़ गया।प्रभावती नाम की एक महिला की हत्या 14 मार्च 1989 को बडगाम जिले में हुई, जो हिंसा का शुरुआती उदाहरण था। एक जानकारी के अनुसार,1989 के पहले ही हालात बिगड़ने लगे थे, कश्मीर में सबसे पहले हिंदू महिलाओं को बिंदी लगाने से रोका जाने लगा था। हिजाब पहनना अनिवार्य कर दिया गया था। इन फरमानो को नहीं मानने पर उन्हें "भारतीय एजेंट" कहकर निशाना बनाया जाता था। घाटी से पलायन कर गए हिन्दुओं के घरों को लूटा गया या जलाया गया था। बीबीसी की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1991 में श्रीनगर के रैनावाड़ी मोहल्ले में पंडितों के घरों को सरे आम लुटा गया था। कई मामलों में हिन्दुओं की संपत्ति पर स्थानीय लोगों ने कब्जा कर लिया या उसे औने-पौने दाम में खरीद लिया था।मस्जिदों से बार-बार होने वाले ऐलानों, जैसे "रलीवे, सालिव या गलिवे" (इस्लाम स्वीकार करो, छोड़ो, या मरो), ने पंडितों में भय का माहौल पैदा किया। कश्मीरी पंडितों को जुलूसों में जबरन शामिल किया गया और "कश्मीर की आजादी" के नारे लगवाए गए। हिंसा की शुरुआत 1989 में ही हो चुकी थी, जब जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) और अन्य उग्रवादी संगठनों ने "कश्मीर छोड़ो" का नारा दिया था। 19 जनवरी 1990 को जगमोहन को जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल नियुक्त किया गया, लेकिन तब तक पलायन शुरू हो चुका था।
कुल जमा 19 जनवरी 1990 की रात कश्मीरी पंडितों के लिए एक काली रात थी। मस्जिदों से ऐलान और उग्रवादी हिंसा ने उन्हें घाटी छोड़ने के लिए मजबूर किया। महिलाओं पर इन संगठनों ने कश्मीर में और भारत के अन्य हिस्सों में हमले किए, 2001 का संसद भवन पर हमला और 2008 का मुंबई हमला पाकिस्तान ने इस तरह तभी से प्रॉक्सी वार छेड़ रखा हैं सीमा पार आतंकियों के लांच पेड हैं। आतंकवादी वहीं से आते हैं, और वापिस वहीं चले भी जाते हैं। यह भी सत्य हैं की इन आतताइयों को स्थानीय स्तर पर हर तरह की मदद मिलती हैं। वर्ष 2019 में मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाकर इसे पूर्ण रूप से भारत में एकीकृत कर लिया। कश्मीरीयों को पाकिस्तान ने गुमराह किया या इस्लामी शासन के सपने ने। लेकिन दुर्भाग्य यह हैं की कश्मीर को लेकर किए जाने वाले पाकिस्तान के दुर्भावना भरे प्रचार को हमारे देश के कई प्रमुख राजनैतिक दल आज भी सही ठहराते हैं। ये वही दल हैं जो देश के हिन्दुओं की नाराजगी भरी प्रतिक्रिया पर नेरेटिव सेट करने का विलाप कर रहे हैं। कुल मिलाकर पहलगाम के हिन्दू नरसंहार के मामले में स्थानीय कश्मीरी आज जिस तरह मासूम बनने की कोशिश कर रहे हैं। यह चकित करने वाली स्ट्रेटेजी हैं। इतिहास को देखे जुल्मों की दास्तान सुने तो आज जो सामने प्रदर्शित हो रहा हैं। अतीत को देखते हुए यह सब एक पटकथा जैसा लग रहा हैं